Sunday, September 27, 2015

राग दरबारी से एक प्रेम पत्र


ऐसा कहा जाता है कि हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए जितना बॉलीवुड ने किया है उतना किसी और ने नहीं। श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी से इसी बात का एक प्रमाण:

ये एक प्रेम पत्र है जो एक लड़की अपने प्रेमी को लिखती है।




ओ सजना, बेदर्दी बालमा,

      तुमको मेरा मन याद करता है। पर… चाँद को क्या मालूम, चाहता उसको कोई चकोर। वह बेचारा दूर से देखे करे न कोई शोर। तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता हो। याद में तेरी जाग जाग के हम रात-भर करवटें बदलते हैं।
      अब तो मेरी यह हालत हो गई है कि सहा भी न जाए, रहा भी न जाए। देखो न मेरा दिल मचल गया, तुम्हें देखा और बदल गया। और तुम हो कि कभी उड़ जाए, कभी मुड़ जाए, भेद जिया का खोले ना। मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको प्यार छुपाने की बुरी आदत है। कहीं दीप जले कहीं दिल, जरा देख तो आकर परवाने।
       तुमसे मिलकर बहुत-सी बातें करनी हैं। ये सुलगते हुए जज़्बात किसे पेश करें। मुहब्बत लुटाने को जी चाहता है। पर मेरा नादान बालमा न जाने जी की बात। इसीलिए उस दिन मैं तुम से मिलने आई थी। पिया मिलन को जाना। अँधेरी रात। मेरी चाँदनी बिछुड़ गयी, मेरे घर में पड़ा अँधियारा था। मैं तुमसे यही कहना चाहती थी, मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए। बस, अहसान तेरा होगा मुझ पर मुझे पलकों की छाँव में रहने दो। पर जमाने का दस्तूर है ये पुराना, किसी को गिराना किसी को मिटाना। मैं तुम्हारी छत पर पहुँचती पर वहाँ तुम्हारे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ थ। मैं लाज के मारे मर गयी। बेबस लौट आयी। आँधियों मुझ पर हँसो, मेरी मुहब्बत पर हँसो।
        मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो। तुम कब तक तडपाओगे? तडपाओगे? तड़पा लो, हम तड़प-तड़प कर भी तुम्हारे गीत गायेंगे। तुमसे जल्दी मिलना है। क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मंदिर सूना है। अकेले हैं, चले आओ जहाँ हो तुम। लग जा गले से फिर ये हसीं रात हो ना हो। यही है तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए, हाय। हम आस लगाये बैठे हैं। देखो जी, मेरा दिल न तोडना।
                                                 
                                                                                                 तुम्हारी याद में, 
कोई एक पागल।    

Sunday, September 6, 2015

an eternal Treblinka

This is the full context of the famous and controversial quote by Isaac Bashevis Singer. This is from his story The Letter Writer:


Despair took hold of Herman. He started to pray for the mouse’s soul. “Well, you’ve had your life. You’ve served your time in this forsaken world, the worst of all worlds, this bottomless abyss, where Satan, Asmodeus, Hitler, and Stalin prevail. You are no longer confined to your hole—hungry, thirsty, and sick, but at one with the God-filled cosmos, with God Himself … Who knows why you had to be a mouse?”

In his thoughts, Herman spoke a eulogy for the mouse who had shared a portion of her life with him and who, because of him, had left this earth. “What do they know—all those scholars, all those philosophers, all the leaders of the world—about such as you? They have convinced themselves that man, the worst transgressor of all the species, is the crown of creation. All other creatures were created merely to provide him with food, pelts, to be tormented, exterminated. In relation to them, all people are Nazis; for the animals it is an eternal Treblinka. And yet man demands compassion from heaven.” Herman clapped his hand to his mouth. “I mustn’t live, I mustn’t I can no longer be a part of it! God in heaven—take me away!”

Saturday, September 5, 2015

an alienated gorilla

“A zoologist who observed gorillas in their native habitat was amazed by the uniformity of their life and their vast idleness. Hours and hours without doing anything. Was boredom unknown to them? This is indeed a question raised by a human, a busy ape. Far from fleeing monotony, animals crave it, and what they most dread is to see it end. For it ends, only to be replaced by fear, the cause of all activity. Inaction is divine; yet it is against inaction that man has rebelled. Man alone, in nature, is incapable of enduring monotony, man alone wants something to happen at all costs—something, anything.... Thereby he shows himself unworthy of his ancestor: the need for novelty is the characteristic of an alienated gorilla.” - E M Cioran